Monday, November 16, 2015

MIRZA GHALIB SHAYARI

इशरत-ए क़तरह है दरया में फ़ना हो जाना
दरद का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
तुझ से क़िसमत में मिरी सूरत-ए क़ुफ़ल-ए अबजद
था लिखा बात के बनते ही जुदा हो जाना
दिल हुआ कशमकश-ए चारह-ए ज़हमत मे तमाम
मिट गया घिसने में इस `उक़दे का वा हो जाना
अब जफ़ा से भी हैं महरूम हम अललाह अललाह
इस क़दर दुशमन-ए अरबाब-ए वफ़ा हो जाना
ज़ु`फ़ से गिरयह मुबददल ब दम-ए सरद हुआ
बावर आया हमें पानी का हवा हो जाना
दिल से मिटना तिरी अनगुशत-ए हिनाई का ख़याल
हो गया गोशत से नाख़ुन का जुदा हो जाना
है मुझे अबर-ए बहारी का बरस कर खुलना
रोते रोते ग़म-ए फ़रक़त में फ़ना हो जाना
गर नहीं नकहत-ए गुल को तिरे कूचे की हवस
कयूं है गरद-ए रह-ए जौलान-ए सबा हो जाना
बख़शे है जलवह-ए गुल ज़ौक़-ए तमाशा ग़ालिब
चशम को चाहिये हर रनग में वा हो जाना
ता कि तुझ पर खुले इ`जाज़-ए हवा-ए सैक़ल
देख बरसात में सबज़ आइने का हो जाना 

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